विधाता छंद

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कहीं पर बांसुरी बजती,  कहीं पर रास होता है।

हमारे उर बसी धुन का, मधुर अहसास होता है।

कभी मटकी नयी फोड़ी, कभी माखन चुराया है।

कन्हैया लाल को फिर भी, सभी ने उर बसाया है।

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यहां पर प्रेम में राधा , सभी हैं चाहतीं बनना।

सिया बनना नहीं चाहें, न चाहें राम सा सजना।

अजब ये प्रेम कलयुग का, फरेबी सा लगे ज्यादा,

सिया का प्रेम जो पाये, लगे फिर प्रेम सब अदना।

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मिलें श्री राम तो कहना , सिया तुम बिन अधूरी है।

हुई क्या भूल है मुझसे, पिया कैसी ये दूरी है।

विरह में कट रहे हैं दिन, तुम्हारे बिन चले आओ,

न अब जीना जरूरी है, न अब मरना जरूरी है।

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गली,हर मोड़, नुक्कड़ पर,शहीदों की निशानी हो।

हमारे गीत, ग़ज़लों में, शहीदों की कहानी हो।

भगत सुखदेव किस्सा हैं, शहादत की लड़ाई का,

शहीदों के शहादत की, कहानी बस ज़ुबानी हो।

ये पुलवामा शहीदों के शहादत की कहानी है।

हमें यह फरवरी हरगिज, नहीं चौदह भुलानी है।

मगर जो भूल जाते हैं, शहीदों की शहादत को,

वही पत्थर दिलों के हैं, उन्हीं का खूंन पानी है।

छंद

सिंह जैसे जो दहाड़े, देश का अभिमान हो।
सूर्य जैसी चमक राखे , हिंद पर बलिदान हो।
शत्रुता ना हो किसी से, प्यार हो सम्मान हो।
वीर पर मां भारती को, पुत्र सा अभिमान हो।

पूजता है विश्व पूरा, अब हमें गुरु रूप में।
शक्तियां सारी निहित हैं ,अब यहां के भूप में।
देश आगे बढ़ रहा है, हर घड़ी हर पल यहां।
वीर पुरुषों की क़यादत, का मिला है फल यहां।

हम विरासत के धनी हैं, धन्य है मां भारती।
धर्म सब सम मानते हैं, एक करते आरती।
कुछ सियासी लोग हैं जो, बांटते इंसान को।
हम समझ पाते नहीं हैं, लालची हैवान को।

धर्म पर सब लड़ रहे हैं, धर्म को माना नहीं।
हर लड़ाई के नतीजे , को कभी जाना नहीं।
बाद में पछता रहे हैं, सोचते ये क्या हुआ।
देख लेते काश पहले, दंभ का गहरा कुआ।

हिंद को बुलंद करे वह, बात होनी चाहिए।
भारती की आरती दिन, रात होनी चाहिए।
गोद में आमोद करें वो, मात गंगा चाहिए।
चंद्रमा के बाद सूरज, पर तिरंगा चाहिए।



हिंद की भाषा

कुंडली छंद –
निज भाषा को छोड़कर, दूजी रहे अपनाय।
दूजी भाषा के तहत, पिता डैड कहलाय।
पिता डैड कहलाय, मात कहलाये मम्मी।
अभिवादन है हाय, सभ्यता बड़ी निकम्मी।
शर्मशार कर जाय, जब आवें किस डे हग डे।
निज संस्कृति को भूल, मन रहे भिन्न भिन्न डे।

हिन्दी हिंदुस्तान की, बोली है प्रिय ख़ास।
हिन्दी भाषा प्रेम का, करा रही आभास।
करा रही आभास, विश्व में बजता डंका।
हिन्दी निज सम्मान, न कोई मन में शंका।
तुलसी,सूर कबीर, ने बांटा हिन्दी ज्ञान।
भारतीयों के हिय, में हिन्दी हिन्दुस्तान।

मालती सवैया
211 211 211 211 211 211 211 22
कृष्ण बसे मन में जब से तब से कछु मोह सुहावत नाहीं।
भक्ति करूं तज काम सभी जग के अब काम सुहावत नाहीं।
भाय रहो ब्रज धाम अनामय और महल कोई भावत
नाहीं।
कौन सो पाप कियो हमने प्रभु ख्वाबन में अब आवत
नाहीं।

आपका दिल आशियाना

2122 2122 2122 212
आपका दिल आशियाना सा मुझे दिखने लगा,
आपकी बोली लगी मैं प्यार से बिकने लगा।
इस कदर खुद को भुलाकर हो गया मसरूफ हूं,
आपकी तस्वीर रखकर शायरी लिखने लगा।

हर ग़ज़ल हर शेर पर तुम इस कदर छाए हुए
इश्क भी अब सूफियाना सा मुझे दिखने लगा।

यह मुसलसल इश्क तेरा जान का दुश्मन बना,
आपका ये इश्किया अंदाज अब जॅंचने लगा।

मंदिरों में मन्नतें मैं मांगता तेरे लिए ,
आपमें अब रब मुझे हर मोड़ पर दिखने लगा।

स्वरचित एवं मौलिक रचना।
प्रदीप शर्मा ✍️✍️✍️

लड़कियों सीखो करना वार

तुम ही मात, पुत्री, भगिनी, सृष्टि का आधार,

कब तक तुम खामोश रहोगी,सहोगी अत्याचार।

लड़कियों हाथ गहो तलवार,

लड़कियों सीखो करना वार।

घर आंगन में खेली, मेरी नन्ही राजकुमारी

मां बाप की गुड़िया रानी, भाई को जान प्यारी।

घर से निकली तो रस्ते में ,हुआ है अत्याचार 

लड़कियों सीखो करना वार।

कभी कर दिया चलती बस में, तेरे संग दुराचार,

कभी कर दिए पैंतिस टुकड़े ,कभी चढ़ा दी कार,

बेटियों हाथ गहो तलवार,

लड़कियों सीखो करना वार।

जग की नकली चकाचौंध से, कर बैठी हो प्यार,

जिसको तुमने कान्हा समझा,वही दुशासन यार।

लड़कियों मत होना लाचार, 

लड़कियों सीखो करना वार।

 स्वरचित एवं मौलिक रचना।

          प्रदीप शर्मा,दिल्ली।

क्या करोगे रावण जलाकर

लोभ,मोह,काम,क्रोध का किया नहीं विरोध,
बुराई के विरोध में क्यों रावण जला रहे हो?
द्वेष और पाखण्ड , में लिप्त हुआ अंग अंग,
अच्छाई जिताने की बात क्यों सुना रहे हो?

जितनी बुराई यहां खुद में है भरी हुई,
उतनी बुराई न तुम रावण में पाओगे।
रावण तो जलता है हर साल पार्क में,
अंदरुनी रावण को कब तुम जलाओगे।
मन में ले आते मैल ,नारी देखी जैसे गैल,
रावण जैसी संयम शक्ति कब ला रहे हो?
लोभ,मोह,काम,क्रोध का किया नहीं विरोध,
बुराई के विरोध में क्यों रावण जला रहे हो?


नीतिज्ञ, बुद्धिमान, रावण सा सात्विक ज्ञान,
दशानन की अच्छाई से,मन खिल जाएगा।
शिव तांडव निर्माता,चारों वेदों का ज्ञाता,
सारे ब्रह्माण्ड में , कहीं ना मिल पाएगा ।
संस्कृति,संस्कृत सबको किया विस्मृत ,
पाश्चात्य अपनाकर,निज क्यों भुला रहे हो?
लोभ,मोह,काम,क्रोध का किया नहीं विरोध,
बुराई के विरोध में क्यों रावण जला रहे हो?

स्वरचित एवं मौलिक रचना।
प्रदीप शर्मा।


मेरा सुकून मेरी चाहत

तुम श्वास हो मैं तन हूं, तुम आत्मा मैं मन हूं।
तुम धरती मैं गगन हूं, तुम राधे मैं किशन हूं।
जन्मजन्मांतर की तपस्या, और तुम्हीं विश्वास हो।
मेरा सुकून मेरी चाहत, मेरे प्रेम का अहसास हो।

इस निर्जीव तन की, तुम संजीवनी श्वास हो।
मनमंदिर के करीब, मेरी आत्मा के पास हो।
प्यासी पड़ी धरा पर,तुम बारिश की आस हो।
मेरा सुकून मेरी चाहत, मेरे प्रेम का अहसास हो।

श्रृंगार रस की कविता का, हृदय स्पर्शी क्षण हो।
तुम चंदा की चांदनी हो, तुम भोर की किरण हो।
हृदयेश्वरी हृदय की, हर धड़कन का आभास हो।
मेरा सुकून मेरी चाहत, मेरे प्रेम का अहसास हो।

इश्क यूं ही रहे हावी,बस इतनी सी इनायत हो।
मेरी दुनिया तुम्हीं से,और तुम्हीं से इबादत हो।
तुम्हारे सुर्ख अधरों पर, मुस्कराहट का वास हो।
मेरा सुकून मेरी चाहत, मेरे प्रेम का अहसास हो।

मेरे गीतों और ग़ज़लों, की सरगम हो तुम।
मेरी कविता के हर रस का,संगम हो तुम।
हमारी प्रेम कहानी का, तुम भावी इतिहास हो
मेरा सुकून मेरी चाहत, मेरे प्रेम का अहसास हो।

स्वरचित एवं मौलिक रचना
प्रदीप शर्मा, आगरा, उत्तर प्रदेश।

याद करो पुलवामा

प्रेम दिवस को मनाने वालो, एक नजर मां-बाप पे डालो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।
हिन्दुस्तानी पर्व छोड़कर , भिन्न भिन्न डे मना रहे हैं।
चंद रुपए का गुलाब देकर ,खुद को मूरख बना रहे हैं।
गुलाबी दिवस मनाने वालो, अर्धांगिनी पर प्रेम लुटालो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।

प्रपोज डे पर कसमें वादे, कुछ तो बाप के साथ निभालो।
चाॅकलेट भाई को देकर ,अपना चाॅकलेट दिवस मना लो।
निज माता के तुम टेडी हो,गोद में सिर रखकर सो जाओ।
चंद विदेशी पर्व मनाकर, पावन संस्कृति ना भुलाओ।
झूठ से मन समझाने वालो, प्रोमिस डे को मनाने वालो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।

हग डे हमारा पर्व नहीं, बस मिलकर मन बहलाते है।
एक विटामिन डी का चुंबन,किश डे पर कर जाते हैं।
रक्षाबंधन, नवमी, दशमी, करवाचौथ, दीवाली, होली ।
इतने पावन पर्व छोड़कर, हम सबने डे पर दृष्टि डाली।
निज संस्कार भुलाने वालो, विदेशी त्यौहार मनाने वालो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।

प्रेम दिवस में भूल ना जाना, चालिस के बलिदानों को।
चौदह फरवरी और पुलवामा, देश के शहीद जवानों को।
याद करो जब चिथड़े-चिथड़े, उनके घर में पहुंचे होंगे।
मां-बाप, बहन और भाई के,पीड़ा ने कलेजे नोचे होंगे।
भारत माता के पुत्रों का, मिलकर कुछ तो कर्ज चुका लो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।

प्रदीप कहें हम कर्जदार हैं, देश‌ के पहरेदारों के।
गूंज उठे यह धरती अम्बर, वीरों के जयकारों से।
याद कर रहे होंगे प्रियजन,राखी और दीवाली में।
जिसने भाई,पुत्र,पति खोया,भारत की रखवाली में।
चौदह फरवरी के अवसर पर,सारे मिलकर कसमें खालो।
वेलेंटाइन डे विस्मृत करके, अब बलिदानी दिवस मना लो।

स्वरचित एवं मौलिक रचना

प्रदीप शर्मा, आगरा उत्तर प्रदेश।

स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर

गीत,ग़ज़ल नाराज हो गये,
शब्द सभी शोकाकुल हैं।
संगीत बहुत गमगीन हुआ,
सारे दीदी बिन व्याकुल हैं।
भक्ति भाव के गीत सुनाकर,
भक्तिमय संसार किया।
देश भक्ति रग रग में भरकर,
ऊर्जा का संचार किया।
छः दशकों तक प्यार जताकर,
सहसा क्यों मुंह मोड़ लिया।
कोई खता हुई क्या बसुधा से,
जो स्वर्ग से नाता जोड़ लिया।

कंठ से निकले मधुर गीत,
स्वरों की काशी काबा थीं।
ईश्वर का वरदान थीं दीदी,
सरस्वती की आभा थीं।
आज वतन के लोगों की,
आंखों से छलकता है पानी।
तीस तीस भाषाएं कहतीं,
हर नगमें की अलग कहानी।
हिंदी, तमिल, मराठी,उर्दू आदि,
को मधुर स्वरों से जोड़ दिया।
कोई खता हुई क्या बसुधा से,
जो स्वर्ग से नाता जोड़ लिया।

आजीवन अविवाहित रहकर,
भाई बहनों को प्यार दिया।
लता मंगेशकर दीदी ने,
निज भोग विलास का त्याग किया।
याद रखेगा जगत समूचा,
सारी भाषा के गीत भजन।
भारत रत्न को पाने वाली,
दीदी को शत-शत है नमन।
छः फ़रवरी सन् बाईस को,
दीदी ने यह जग छोड़ दिया।
कोई खता हुई क्या बसुधा से,
जो स्वर्ग से नाता जोड़ लिया।

स्वरचित एवं मौलिक रचना
प्रदीप शर्मा।
आगरा, उत्तर प्रदेश।

ठंड की धूप।

सर्द रैन जब हुई अलविदा,और प्रातः ने डाला डेरा
त्याग निंद्रा आलस छोड़ो,हुआ सवेरा हुआ सवेरा।
भोर की नींद से मुक्ति पाना, मृदु सपनों से बाहर आना
बड़ा कठिन है इस दुनिया में,मीठी मीठी नींद भगाना।
बिस्तर त्यागा तो ठिठुरन ने,सहसा अपनी धाक जमाई,
ठंड से ठिठुर रहे हर जन को,याद ठंड में धूप की आई।

सूर्यदेव पर टिकी निगाहें,काश यहां किरणें आ जाएं
आत्मिकता से स्वागत करके, गर्म धूप में तन नहलाएं।
ईश्वर के भी काम अनोखे, रैन विशाल दिवस हैं छोटे,
गर्मी में जिससे कतराते ,उसी धूप के ठंड में टोटे।
हल्की हल्की धूप दिखी,तब मन ने कुछ राहत पाई
ठंड से ठिठुर रहे हर जन को, याद ठंड में धूप की आई।

स्वरचित एवं मौलिक रचना
प्रदीप शर्मा।
आगरा, उत्तर प्रदेश।






हिंदी भाषा

हिंदी भाषा अपनाने में, किंचित भी न शरम करना
अंग्रेजी से होय तरक्की, बिल्कुल भी न भ्रम रखना
अंग्रेजी भाषा सीखो पर,निज भाषा का ज्ञान रहे
मान बढा़ना हिंदी मां का,हर संभव यह ध्यान रहे
हिंदी, संस्कृत की पुत्री,सरल स्वभाविक भाषा है
निज भाषा से होय तरक्की, बाकी सभी तमाशा है
हिंदी,हिंदुस्तान की भाषा,अंतःकरण से नमन करना
हिंदी भाषा अपनाने में, किंचित भी न शरम करना।
गोस्वामीजी ने हिंदी में,पावन ग्रंथ बना डाला
रामचरितमानस रचकर के पूरा सार बता डाला
एक एक चौपाई हिंदी में, हिंदी में ही दोहे हैं
हिंदी में ही रामलला ने,बीज ज्ञान के बोये हैं
हिंदी पौराणिक भाषा है, अंतस्थल में मनन करना
हिंदी भाषा अपनाने में, किंचित भी न शरम करना।
हिंदी में रसखान,सूर ने कृष्ण प्रेम को दर्शाया
मीरा और कबीरदास ने,भी हिंदी रस अपनाया
अंग्रेजी शासन से पहले, बस हिन्दी की आंधी थी
बोल रहे शेखर, सुभाष और हिंदी बोले गांधी जी
हिंदी विश्व समूचा बोले, प्रदीप कुछ ऐसा जतन करना
हिंदी भाषा अपनाने में, किंचित भी न शरम करना।

स्वरचित एवं मौलिक रचना ✍️✍️
प्रदीप शर्मा।